क्या मंगलेश डबराल ने पहाड़ पर लालटेन जलाकर नए युग में शत्रु की तलाश की?

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क्या मंगलेश डबराल ने पहाड़ पर लालटेन जलाकर नए युग में शत्रु की तलाश की?

सारांश

मंगलेश डबराल, एक अद्वितीय कवि, पत्रकार और संपादक, जिनकी कविताएँ आज भी पाठकों के दिलों में जलती हैं। उनकी जीवन यात्रा, संघर्ष और विचारधारा ने हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया। जानिए उनके योगदान और उनके अद्वितीय दृष्टिकोण के बारे में।

Key Takeaways

  • मंगलेश डबराल की कविताएँ जीवन के संघर्ष और मानवीय संवेदनाओं को दर्शाती हैं।
  • उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक पुल का काम किया।
  • उनकी आवाज उपेक्षितों के लिए एक महत्वपूर्ण मंच थी।
  • कविता में उनकी दृष्टि समाज में बदलाव लाने का प्रयास करती है।
  • उनके कार्य ने हिंदी साहित्य को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई।

नई दिल्ली, 8 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। एक ऐसा कवि, जो हमेशा घर लौटने का रास्ता याद रखना चाहता था, वह 2020 से हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन उनकी कविता की पंक्तियाँ आज भी जीवित हैं। उन्होंने एक बार लिखा था, "मैं चाहता हूं कि स्पर्श बचा रहे... मैं कभी नहीं भूलना चाहता, वापस घर जाने का रास्ता।" मंगलेश डबराल की यह आवाज, आज भी, हर पाठक के भीतर एक उम्मीद की तरह जलती लौ है।

महानगरों की चकाचौंध में हम अक्सर उन आवाजों को भूल जाते हैं, जिनकी जड़ें दूर किसी शांत और पहाड़ी गांव की मिट्टी में गढ़ी होती हैं। मंगलेश डबराल बीसवीं सदी की हिंदी कविता के एक अनूठे शिल्पी थे, जिनकी कविताओं में टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव की सांसें और दिल्ली के धड़कते दिल का तनाव, दोनों एक साथ गूंजते थे।

यह कहानी है उस कवि, पत्रकार और संपादक की, जिसने अपने पहले कविता संग्रह का नाम 'पहाड़ पर लालटेन' रखा। यह एक ऐसा बिंब है जो उनकी पूरी यात्रा का सार कह देता है।

मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई, 1948 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल स्थित काफलपानी गांव में हुआ। उनकी शुरुआती शिक्षा देहरादून में हुई। आजीविका की तलाश उन्हें जल्द ही दिल्ली खींच लाई। उस समय दिल्ली आना केवल जगह बदलना नहीं, बल्कि एक नए संघर्ष को अपनाना था। उन्होंने यहां कई छोटे-बड़े साहित्यिक और पत्रकारिता के कार्य किए।

'हिन्दी पैट्रियट', 'प्रतिपक्ष', और 'आसपास' जैसी पत्रिकाओं में काम करते हुए उन्होंने अपनी कलम को धार दी। उनकी पत्रकारिता का एक स्वर्णिम अध्याय भोपाल में मध्य प्रदेश कला परिषद् के साहित्यिक त्रैमासिक 'पूर्वाग्रह' में सहायक संपादक के रूप में शुरू हुआ, और फिर इलाहाबाद एवं लखनऊ से प्रकाशित 'अमृत प्रभात' में। हालांकि, हिंदी पत्रकारिता को उनका सबसे बड़ा योगदान 1983 में मिला, जब उन्होंने 'जनसत्ता' में साहित्य संपादक का पद संभाला।

'जनसत्ता' में उनका कार्यकाल एक सेतु की तरह था, जो साहित्य और पत्रकारिता के बीच की दूरी को कम करता था। उस समय, मंगलेश ने अपनी सूक्ष्म और पारखी दृष्टि से युवा लेखकों की एक पूरी पीढ़ी को तराशा। पत्रकारिता के उनके कक्ष को कई साहित्यकार एक दोस्ताना अड्डा मानते थे, जहां चाय की चुस्कियों के बीच साहित्य, संस्कृति और दुनियावी विमर्श होते थे। उन्होंने सिर्फ खबरों के पन्ने नहीं, बल्कि विश्व कविता के सुनहरे अनुवादों और भारतीय भाषाओं के बेहतरीन साहित्य को हिंदी पाठकों तक पहुंचाने का मंच बनाया।

मंगलेश डबराल का पहला संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन' (1981) उनके भीतर के विस्थापन की वेदना को दर्शाता है। उनकी कविताओं में एक सतत द्वंद्व था। पहाड़ी जीवन की शांति और शहर के छल-छद्म के बीच का तनाव। उन्होंने हमेशा सामंती बोध और पूंजीवादी छल-छद्म का प्रतिकार किया। यह प्रतिकार किसी शोर-शराबे या तीखी नारेबाजी के साथ नहीं, बल्कि 'प्रतिपक्ष में एक सुंदर स्वप्न रचकर' किया जाता था।

साल 2000 में उनके कविता संग्रह 'हम जो देखते हैं' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जो उनकी साहित्यिक यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। यह वह संग्रह है, जिसमें उन्होंने मानवीय यातना, विडंबना और समाज की छद्म वास्तविकता को पकड़ा।

एक कवि के रूप में उनकी संवेदनशीलता हाशिए के लोगों तक फैली थी। उनकी प्रसिद्ध कविताओं में एक 'संगतकार' है, जो मुख्य गायक की महत्ता को बढ़ाने वाले, परदे के पीछे खड़े रहने वाले उपेक्षित संगीतकार को समर्पित है। उनका काम उपेक्षितों को आवाज देना था, उन लोगों की चिंता और जरूरतों को सामने लाना था, जो सत्ता के केंद्र की कल्पना में भी नहीं होते। उनकी अंतिम कृतियों में से एक, 'नए युग में शत्रु' (2013), राष्ट्र के समकालीन हालातों पर एक शक्तिशाली टिप्पणी थी। इसी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण, उन्होंने देश में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में 2015 में अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस भी कर दिया था।

कविता के अलावा मंगलेश डबराल ने साहित्य, सिनेमा, संचार माध्यम और संस्कृति के विषयों पर नियमित गद्य लेखन भी किया। उनके गद्य संग्रह 'लेखक की रोटी' और 'कवि का अकेलापन' एक लेखक के जीवन, उसकी चुनौतियों और उसके एकांत पर उनके गहन चिंतन को दर्शाते हैं। उनकी यात्रा डायरी 'एक बार आयोवा' बताती है कि वह केवल अपनी धरती तक सीमित नहीं थे, बल्कि विश्व साहित्य और संस्कृति से भी गहरे जुड़े थे।

एक अनुवादक के तौर पर उनका काम विश्व साहित्य को हिंदी के पाठक तक पहुंचाना था। उन्होंने बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, हांस माग्नुस ऐंत्सेंसबर्गर, जिबग्नीयेव हेर्बेत जैसे दिग्गजों की कविताओं का अनुवाद किया। हाल के वर्षों में, उन्होंने बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति रॉय के उपन्यास 'द मिमिस्ट्री ऑफ अटमॉस्ट हैपिनेश' का हिंदी अनुवाद 'अपार खुशी का घरान' नाम से करके अपनी भाषाई जादूगरी का प्रमाण दिया।

उनकी कविताओं का अनुवाद भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, डच, स्पेनिश, पुर्तगाली, इतालवी, फ्रेंच, पोलिश और बुल्गारियाई जैसी दस से अधिक विदेशी भाषाओं में प्रकाशित हो चुका है। उनका इतालवी अनुवाद 'अंके ला वोचे ऐ उन लुओगो' (आवाज भी एक जगह है) उनकी वैश्विक ख्याति का प्रमाण है।

पुरस्कार और सम्मानों की एक लंबी सूची उनकी प्रतिभा को दर्शाती है, जिसमें ओमप्रकाश स्मृति सम्मान (1982), श्रीकांत वर्मा पुरस्कार (1989), साहित्य अकादमी पुरस्कार (2000), शमशेर सम्मान और हिंदी अकादमी का साहित्यकार सम्मान प्रमुख हैं।

अपनी कलम और आवाज से दुनिया की यातना और संघर्ष को जानने वाले मंगलेश डबराल की जीवन यात्रा 9 दिसंबर 2020 को दुखद रूप से समाप्त हो गई। 72 वर्ष की आयु में उन्होंने कोरोना वायरस संक्रमण के कारण दिल्ली के एम्स में अंतिम सांस ली।

Point of View

जो न केवल साहित्य को समृद्ध करती हैं, बल्कि सामाजिक मुद्दों पर भी विचार करने के लिए प्रेरित करती हैं। उनका काम हमेशा राष्ट्र की दिशा में एक नई सोच प्रदान करता है।
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08/12/2025

Frequently Asked Questions

मंगलेश डबराल का जन्म कब हुआ था?
मंगलेश डबराल का जन्म 16 मई, 1948 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल स्थित काफलपानी गांव में हुआ था।
उन्हें कौन सा पुरस्कार मिला था?
उन्हें 2000 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ कौन सी हैं?
उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ 'पहाड़ पर लालटेन', 'हम जो देखते हैं' और 'नए युग में शत्रु' हैं।
मंगलेश डबराल का योगदान क्या था?
उन्होंने हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में महत्वपूर्ण योगदान दिया, विशेष रूप से युवा लेखकों को प्रोत्साहित करने में।
उनका निधन कब हुआ?
मंगलेश डबराल का निधन 9 दिसंबर 2020 को हुआ।
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