क्या मुनि तरुण सागर जलेबी खाते-खाते संन्यासी बन गए थे?

सारांश
Key Takeaways
- तरुण सागर का जन्म: २६ जून १९६७
- संन्यास का निर्णय: १३ साल की उम्र में
- प्रमुख विषय: कड़वे वचन और सामाजिक मुद्दे
- निधन: १ सितंबर २०१८
- धर्म: जैन धर्म का दिगंबर पंथ
नई दिल्ली, २५ जून (राष्ट्र प्रेस)। जैन धर्म के दिगंबर पंथ के प्रसिद्ध मुनि तरुण सागर की २६ जून को जयंती मनाई जाएगी। उन्होंने सुख-सुविधाओं से दूर रहकर कठिन जीवन व्यतीत किया। सादगी से जीवन यापन करते हुए उन्होंने हमेशा लोगों को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। तरुण सागर अपने “कड़वे वचनों” के लिए काफी प्रसिद्ध थे। उनके संन्यासी बनने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है।
२6 जून १९६७ को उनका जन्म मध्य प्रदेश के दमोह जिले के एक गांव में हुआ। मुनि तरुण सागर ने १३ साल की उम्र में अपने घर-परिवार को छोड़ दिया और जलेबी खाते-खाते संन्यासी बन गए। उन्होंने खुद एक इंटरव्यू में इस घटना का जिक्र किया था।
इंटरव्यू में तरुण सागर ने कहा था, “मेरे बचपन में जलेबी का बहुत शौक था। स्कूल से घर लौटते समय एक होटल के पास बैठकर जलेबी खा रहा था। वहीं आचार्य विद्यासागर का प्रवचन चल रहा था, जिसमें उन्होंने कहा कि तुम भी भगवान बन सकते हो। ये शब्द सुनते ही जलेबी का स्वाद भूल गया और भगवान बनने का ख्याल मन में आ गया।”
इस तरह छठी कक्षा में पढ़ते हुए उन्होंने संन्यासी के रूप में जीवन की शुरुआत की। २० साल की आयु में उन्होंने दिगंबर मुनि की दीक्षा ली और सभी सांसारिक वस्तुओं का त्याग कर दिया। उन्होंने इस फैसले पर कभी पछतावा नहीं किया।
आगे चलकर, तरुण सागर जैन धर्म के दिगंबर पंथ के एक प्रमुख मुनि बने। उन्होंने आम प्रथाओं और विचारों की आलोचना की। हिंसा और रूढ़िवाद के खिलाफ उनकी प्रखर वाणी ने उन्हें अलग पहचान दिलाई। उनके प्रवचनों को “कड़वे प्रवचन” कहा जाता था। उन्होंने इन्हीं वचनों से लोगों को सही राह दिखाने की कोशिश की, जिसे लोगों ने आत्मसात किया। उनके प्रवचन सुनने के लिए लाखों लोग इकट्ठा होते थे। हालांकि, १ सितंबर २०१८ को उनका निधन हो गया।