क्या 'भारत रत्न' विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन से आज की पीढ़ियों को प्रेरित किया?
सारांश
Key Takeaways
- आचार्य विनोबा भावे का जीवन निःस्वार्थ सेवा का प्रतीक है।
- भूदान आंदोलन ने सामाजिक न्याय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए।
- समुदाय की भावना और स्वैच्छिक त्याग का महत्व।
- विनोबा भावे का योगदान आज भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है।
- सामाजिक असमानता के खिलाफ संघर्ष का संदेश।
नई दिल्ली, 14 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात जब देश सामाजिक सुधार की दिशा में प्रयासरत था, किसान भूमि के अभाव में जूझ रहे थे और असमानता अपने चरम पर थी, तब आचार्य विनोबा भावे ने अपने भूदान आंदोलन के माध्यम से एक सादगी भरा व्यक्तित्व प्रस्तुत किया।
महात्मा गांधी के सबसे निकटतम शिष्यों में से एक, दार्शनिक, लेखक, समाज सुधारक और सच्चे गांधीवादी विनोबा भावे का जीवन निःस्वार्थ सेवा, अहिंसा और समानता का प्रतीक रहा। 1958 में वे रमन मैगसेसे पुरस्कार जीतने वाले पहले भारतीय बने और मरणोपरांत उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। उनका प्रमुख योगदान 'भूदान आंदोलन' आज भी सामाजिक न्याय और ग्रामीण सुधार का एक अद्वितीय उदाहरण है। 15 नवंबर को उनकी पुण्यतिथि है।
11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के गागोदे गांव में जन्मे विनायक नरहरि भावे (विनोबा भावे) का बचपन से ही अध्ययन और चिंतन में विशेष रुचि थी। गांधीजी के भाषणों से प्रेरित होकर उन्होंने उन्हें पत्र लिखा। पत्रों के आदान-प्रदान के बाद गांधीजी ने उन्हें अहमदाबाद में मुलाकात के लिए बुलाया।
विनोबा भावे ने स्वतंत्रता संग्राम में जेल भी बिताई, लेकिन स्वतंत्रता के बाद उन्होंने राजनीति से दूरी बनाई। उनका मानना था कि असली आजादी गांव की गरीबी और असमानता को मिटाने में है।
साल 1951 में तेलंगाना के पोचमपल्ली गांव में कुछ दलित श्रमिकों ने विनोबा से कहा, "हमें जमीन चाहिए ताकि हम अपने परिवार का पालन कर सकें।" यहीं से भूदान आंदोलन की शुरुआत हुई। विनोबा ने जमींदार से अपील की कि वे अपनी जमीन का कुछ हिस्सा गरीबों को दान करें। जमींदार ने 100 एकड़ जमीन दान की। इस प्रकार यह 'भूदान' कहलाया यानी जमीन का दान। इसके बाद विनोबा भावे देशभर में पैदल यात्रा करते हुए गांव-गांव गए। वे कहते थे "जय जगत" (विश्व विजय) और लोगों से आग्रह करते थे, "अगर आपके पास 6 भाई हैं, तो सातवें भाई (गरीब) के लिए भी जमीन दें।"
यह आंदोलन दक्षिण भारत से शुरू होकर उत्तर भारत में भी फैल गया। बिहार और उत्तर प्रदेश में भी इस आंदोलन का गहरा प्रभाव देखने को मिला। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता जयप्रकाश नारायण जैसे कई प्रमुख नेता इस आंदोलन से जुड़े।
विनोबा भावे भूमि, जल, वायु, आकाश और सूर्य को ईश्वर का उपहार मानते थे। उन्होंने विज्ञान को अध्यात्म से और स्वायत्त ग्राम को वैश्विक आंदोलन से जोड़ा।
भूदान आंदोलन के बाद ग्रामदान का नया रूप उड़ीसा से शुरू हुआ, जिसमें पूरा गांव अपनी जमीन सामुदायिक स्वामित्व में देता था। इसका उद्देश्य था कि कोई भी भूमिहीन न रहे, सभी को खेती का अधिकार मिले। इस आंदोलन में 44 एकड़ जमीन दान की गई और गरीबों में बांटी गई।
25 दिसंबर 1974 से 25 दिसंबर 1975 तक विनोबा ने एक साल मौन रहने का संकल्प लिया। उन्होंने 1976 में गाय की हत्या रोकने के लिए उपवास किया। उनका मानना था कि गाय मां समान है और उसकी रक्षा करनी चाहिए।
विनोबा भावे एक प्रखर विद्वान थे, जिन्होंने ज्ञान को सामान्य जनों के लिए सुलभ बनाया। इसी कड़ी में उन्होंने भगवद्गीता का सरल मराठी अनुवाद 'गीताई' किया। इसे उन्होंने धुलिया जेल में लिखा। विनोबा भावे 1940 तक गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी रहे, लेकिन महात्मा गांधी ने 1940 में पत्र लिखकर उनकी महानता को उजागर किया।
आम जनों के लिए ज्ञान को सरल बनाना ही उनका उद्देश्य था। आज भी सवाल उठता है कि क्यों विनोबा भावे आज प्रासंगिक हैं? आज भूमि असमानता, गरीबी, और ग्रामीण पलायन बड़ी समस्याएं हैं। ऐसे में भूदान का विचार बताता है कि समाधान जबरदस्ती में नहीं, बल्कि स्वैच्छिक त्याग और सामुदायिक भावना में है। उनका कार्य आज की पीढ़ियों को भी प्रेरित करता है।
15 नवंबर 1982 को उन्होंने अपने पवनार आश्रम (महाराष्ट्र) में अंतिम सांस ली।