क्या संत नामदेवजी भक्ति की सच्ची मिसाल थे?

सारांश
Key Takeaways
- संत नामदेवजी का जन्म 1270 में हुआ था।
- उन्होंने भगवान विठोबा की भक्ति की।
- उनका जीवन भक्ति का अद्वितीय उदाहरण है।
- भक्ति आंदोलन में उनका योगदान महत्वपूर्ण है।
- उनकी रचनाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।
नई दिल्ली, 2 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। भक्ति मार्ग के महान संतों में से एक, संत नामदेवजी का जन्म सन 1270 में महाराष्ट्र के सातारा जिले के नरसी बामनी गांव में कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन हुआ। उस समय भक्ति आंदोलन अपने प्रारंभिक चरण में था, और संत नामदेव जी ने अपने जीवन को इस आंदोलन के प्रति समर्पित कर दिया। संत कबीर, जो कि लगभग 130 वर्ष बाद जन्मे, को आध्यात्मिक रूप से उनके उत्तराधिकारी माना जाता है।
नामदेव जी के पिता दामाशेटी और माता गोणाई देवी भगवान विठ्ठल के सच्चे भक्त थे। इस भक्ति की विरासत बाल्यकाल में ही नामदेव को प्राप्त हुई। कहते हैं, एक दिन जब उनके पिता घर पर नहीं थे, उनकी माँ ने उन्हें दूध देकर कहा कि इसे विठोबा भगवान को भोग लगाएं। बालक नामदेव उस दूध को लेकर सीधे मंदिर पहुंचे और भगवान विठोबा की मूर्ति के सामने रखकर मासूमियत से बोले- “लो, इसे पी लो।”
मंदिर में उपस्थित लोगों ने उन्हें समझाया कि मूर्ति दूध नहीं पी सकती, लेकिन पांच वर्ष का वह बालक भाव में इतना डूबा था कि वह वहीं बैठकर रोने लगा। वह बार-बार भगवान से कहने लगा कि यदि आपने दूध नहीं पिया तो मैं यहीं प्राण त्याग दूंगा। उस निश्छल भक्ति से प्रभावित होकर भगवान विठोबा साक्षात प्रकट हुए और दूध ग्रहण किया। साथ ही, बालक नामदेव को भी पिलाया।
यह क्षण उनके जीवन का मार्गदर्शक बन गया। इसके बाद से वे विठोबा के नाम में लीन हो गए और दिन-रात ‘विठ्ठल-विठल’ का जप करते रहे।
संत ज्ञानेश्वर उनके गुरु बने, जिन्होंने उन्हें ब्रह्मविद्या से परिचित कराया। ज्ञानेश्वर ने महाराष्ट्र में आध्यात्मिक ज्ञान को जन-सुलभ बनाया, जबकि संत नामदेव ने ‘हरिनाम’ के प्रचार का कार्य उत्तर भारत तक फैलाया। वे महाराष्ट्र से पंजाब तक यात्रा करते हुए भक्ति और भजन के माध्यम से लोगों को ईश्वर से जोड़ते गए।
भक्ति के इस महासागर में संत नामदेव का स्थान उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कबीरदास और सूरदास का। उन्होंने जात-पात, मूर्ति पूजा और कर्मकांड पर निर्भीकता से विचार रखे। उनके विचारों में सामाजिक समानता, निष्कलंक भक्ति और प्रेम का मूल आधार था। इसलिए, कई विद्वानों ने उन्हें कबीर का आध्यात्मिक अग्रज कहा है।
नामदेव जी ने मराठी के साथ-साथ पंजाबी में भी रचनाएं कीं। उनकी भाषा में सहजता और भावों में गहराई है। उनकी बाणी आज भी पंजाब के लोगों में लोकप्रिय है। संत नामदेव की रचनाओं को श्री गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल किया गया है, जिसमें उनके 61 पद, 3 श्लोक और 18 रागों का संकलन किया गया है।
उनके जीवन से जुड़ा एक प्रसंग भक्ति की गहराई को और स्पष्ट करता है। एक बार जब वे भोजन कर रहे थे, तब एक कुत्ता उनकी रोटी उठाकर भाग गया। यह देखकर नामदेव जी घी का कटोरा लेकर उसके पीछे दौड़े और बोले, “हे प्रभु, सूखी रोटी मत खाओ, साथ में घी भी ले लो।” यह प्रसंग दर्शाता है कि वे हर प्राणी में ईश्वर का रूप देखते थे।
उनकी वाणी और जीवन आज भी भक्ति, करुणा और समर्पण की जीवंत मिसाल हैं। ‘मुखबानी’ जैसे ग्रंथों में उनकी कई रचनाएं संग्रहित हैं, जो उनकी भक्ति की अमर धरोहर हैं।
संत नामदेव जी का जीवन सच्चे भक्त की परिभाषा है, जहां निष्कलंक प्रेम, निस्वार्थ सेवा और परमात्मा के प्रति समर्पण ही सबसे बड़ा धर्म है।