क्या 'रफी की विरासत' और एक गायक की उलझन ने शब्बीर कुमार के सफर को प्रभावित किया?
सारांश
Key Takeaways
- शब्बीर कुमार का असली नाम शब्बीर शेख है।
- उन्होंने 1981 में फिल्म 'तजुर्बा' से करियर की शुरुआत की।
- मोहम्मद रफी के प्रशंसक होने के नाते, उन्होंने अपनी पहचान बनाई।
- शब्बीर कुमार ने पारिवारिक संस्कारों को उच्च प्राथमिकता दी।
- उनका गाना 'बुरी नजरवाले तेरा मुंह काला' आज भी लोकप्रिय है।
मुंबई, 25 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। शब्बीर कुमार, जिनका असली नाम शब्बीर शेख है, भारतीय सिनेमा के उन चुनिंदा प्लेबैक सिंगर्स में से एक हैं, जिन्होंने 1980 के दशक में अपनी मधुर और मखमली आवाज से बॉलीवुड को एक नया आयाम दिया। मोहम्मद रफी के सबसे बड़े फैन के रूप में पहचाने जाने वाले शब्बीर ने अपना नाम 'कुमार' जोड़कर एक मजबूत संदेश दिया—कि संगीत की दुनिया में जाति या समुदाय की दीवारें मायने नहीं रखतीं, बल्कि प्रतिभा और आवाज ही धर्म है।
उनका सफर 1967 में शुरू हुआ, जब उन्होंने छत्रपती शिवाजी की जयंती के अवसर पर रफी साहब का गीत 'मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे' स्टेज पर गाकर पहली बार सुर्खियां बटोरीं। 1981 में संगीतकार उषा खन्ना ने उन्हें फिल्म 'तजुर्बा' के लिए पहला ब्रेक दिया, जहां उन्होंने 'हम एक नहीं, हम दो नहीं... हम हैं पूरे पांच' गाकर मशहूर गायक जैसे सुरेश वाडकर, अमित कुमार और हेमलता के साथ जगह बनाई।
असली धमाका तब हुआ जब मनमोहन देसाई और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने उन्हें अमिताभ बच्चन के लिए फिल्म 'कुली' (1983) में 'मुबारक हो तुम सबको हज का महीना' गाने का मौका दिया। इसके बाद शब्बीर ने धर्मेंद्र, ऋषि कपूर, जितेंद्र, मिथुन चक्रवर्ती, और गोविंदा जैसे सितारों के लिए सैकड़ों हिट गाने गाए, जिनमें 'गोरी है कलाइयां' और 'सोचना क्या' जैसे ट्रैक्स शामिल हैं।
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, राहुल देव बर्मन, बप्पी लहरी, आनंद-मिलिंद और जतिन-ललित जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ उनके सहयोग ने उन्हें 34 गोल्ड डिस्क, 16 प्लेटिनम अवॉर्ड्स और राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से 'कला रत्न' सम्मान दिलाया। हिंदी के अलावा उन्होंने मराठी, बंगाली, भोजपुरी, पंजाबी और मलयालम जैसी भाषाओं में भी अपनी प्रतिभा का जादू बिखेरा।
1980 के दशक में जब भारतीय सिनेमा के 'सुर सम्राट' मोहम्मद रफी के आकस्मिक निधन से संगीत जगत में एक बड़ा शून्य पैदा हो गया था, तब जो आवाज उस जगह को भरने के लिए उभरी—वह आवाज शब्बीर कुमार की ही थी।
शब्बीर कुमार के शानदार करियर का एक ऐसा किस्सा है जो बताता है कि स्टारडम और कामयाबी के बावजूद, कुछ गायक अपने पारिवारिक संस्कारों को फिल्मी जरूरतों से अधिक महत्व देते हैं।
साल 1985 की सुपरहिट फिल्म 'मर्द' ने अमिताभ बच्चन को एक बार फिर एंग्री यंग मैन के रूप में स्थापित किया। इस फिल्म के गाने भी उतने ही जबरदस्त हिट हुए, जिनमें शब्बीर कुमार का गाया हुआ, आम आदमी के हक की बात करने वाला गाना 'बुरी नजरवाले तेरा मुंह काला' भी शामिल था।
यह गाना आज भी एक कल्ट क्लासिक है, लेकिन इसे रिकॉर्ड करते समय शब्बीर कुमार एक अजीब कशमकश से गुजर रहे थे। दरअसल, गीतकार प्रयागराज ने इस गाने में कुछ ऐसे बोल लिखे थे जो सड़कों और आम बोलचाल की भाषा का हिस्सा थे—जैसे कि अंतरे में आने वाला शब्द, 'साला' (जो हल्के फिल्मी अपशब्द के रूप में प्रयोग होता है)।
शब्बीर कुमार ने अपने एक इंटरव्यू में खुलासा किया था कि वह एक बेहद संस्कारी और पारंपरिक परिवार से आते हैं। उनके घर में इतनी मर्यादा थी कि उन्हें या उनके भाई-बहनों को कभी भी किसी के लिए अपशब्द या गाली का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं थी। उनके माता-पिता ने उन्हें सिखाया था कि घर में कभी ऊंची आवाज में या बुरे शब्द नहीं बोलने हैं।
जब वह स्टूडियो में आए और उन्हें गाने की पंक्तियों में बार-बार 'ऐ साला', 'जा साला', और, 'वाह साला' जैसे शब्द गाने पड़े, तो उन्हें बहुत संकोच हुआ। वह बार-बार रुक जाते थे। उनके मन में यह डर था कि जब उनके परिवार वाले, खासकर उनके माता-पिता, यह गाना सुनेंगे तो वह क्या सोचेंगे कि उनका बेटा फिल्मों में इस तरह के शब्द गा रहा है।
गायक की इस उलझन को निर्देशक मनमोहन देसाई ने समझा। उन्होंने शब्बीर कुमार को शांत किया और समझाया कि यह गाना अमिताभ बच्चन के 'मर्द' वाले दबंग किरदार के लिए है। यह शब्बीर कुमार की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि वह सिर्फ एक अभिनेता के लिए अपनी आवाज दे रहे हैं, जो एक मजबूत, ठेठ और बेबाक इंसान का किरदार निभा रहा है।
मनमोहन देसाई के समझाने के बाद ही शब्बीर कुमार हिम्मत जुटा पाए और उस शब्द के साथ गाने को पूरा किया। यह किस्सा बताता है कि शब्बीर के लिए अपने पारिवारिक मूल्य और संस्कार फिल्मी दुनिया की मांग से ज्यादा मायने रखते थे।