क्या उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने अमेरिका का प्रस्ताव ठुकराया था?

सारांश
Key Takeaways
- उस्ताद बिस्मillah खान की शहनाई ने भारतीय संगीत को नई पहचान दी।
- उन्होंने गंगा और काशी के प्रति अपने प्रेम को प्रकट किया।
- उस्ताद का संगीत आज भी लोगों के दिलों में गूंजता है।
- उस्ताद ने संगीत को शिक्षा का विषय बनाने की इच्छा जताई।
- उनकी कला ने विश्वभर में भारतीय संस्कृति को फैलाया।
नई दिल्ली, 20 अगस्त (राष्ट्र प्रेस)। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान जब शहनाई बजाते थे तो ऐसा लगता था जैसे गंगा की धारा प्रवाहित हो उठती है। इस छोटे से वाद्ययंत्र के छिद्रों पर उनकी जादुई पकड़ ने शहनाई को भारत का आत्मा और बनारस की पहचान बना दिया, जिसके लिए उन्हें भारत रत्न की उपाधि से नवाजा गया। उस्ताद के लिए सबसे बड़ा सम्मान गंगा के घाट और बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी थी। इसी वजह से जब उन्हें अमेरिका में बसने का प्रस्ताव मिला, तो उन्होंने सहजता से कहा, "अमेरिका में आप मेरी गंगा कहां से लाओगे?"
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का जन्म 21 मार्च 1916 को बिहार के डुमरांव में हुआ। छह साल की उम्र में वे अपने मामा अली बख्श के पास वाराणसी आ गए, जो काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाते थे। यहीं से उस्ताद ने शहनाई को अपना पहला प्यार बनाया। रोजाना छह घंटे रियाज और बालाजी मंदिर के सामने बैठकर साधना ने उनकी शहनाई को वो जादू दिया, जिसने 1937 में ऑल इंडिया म्यूजिक कॉन्फ्रेंस में पहली बार दुनिया को मंत्रमुग्ध किया।
चैती, ठुमरी, कजरी, होरी और सोहर जैसे लोक संगीत को शहनाई के माध्यम से उन्होंने नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
विनम्र इतने कि अपने से जूनियर कलाकारों पर भी स्नेह रखते थे। पद्मश्री और जलतरंग वादक डॉ. राजेश्वर आचार्य उस्ताद को बनारस की संस्कृति का सच्चा प्रतीक बताते हैं। उन्होंने कहा, "उस्ताद सभी धर्मों और विचारों के प्रति समान भाव रखते थे। काशी का मूल स्वभाव आनंद है और उस्ताद ने अपनी शहनाई से बाबा विश्वनाथ को यह आनंद अर्पित किया।"
आचार्य ने एक किस्सा साझा किया, जिसके अनुसार उस्ताद चाहते थे कि शहनाई को विश्वविद्यालयों में पढ़ाई का विषय बनाया जाए। जब आचार्य ने यह सुझाव दिया, तो उस्ताद ने इसका समर्थन करते हुए कहा कि शहनाई को गुरु-शिष्य परंपरा से आगे बढ़ाकर व्यापक स्तर पर पढ़ाया जाना चाहिए।
उस्ताद का बनारस, गंगा और बाबा विश्वनाथ से गहरा लगाव था। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, "सुरीला बनना है तो बनारस चले आओ, गंगा किनारे बैठो, क्योंकि बनारस के नाम में ही 'रस' है।"
चाहे काशी विश्वनाथ मंदिर हो, बालाजी मंदिर हो या गंगा घाट, उस्ताद को वहां शहनाई बजाने में सुकून मिलता था। मुहर्रम हो या मंदिर का उत्सव, उनकी शहनाई हर मौके को अधूरा नहीं रहने देती थी।
वह एक गुणी कलाकार के साथ खाटी बनारसी भी थे। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “जब सच्चा सुर लग जाएगा तो समझिएगा कि हम बाबा विश्वनाथ की शरण में पहुंच गए। चाहे काशी विश्वनाथ मंदिर हो या बालाजी मंदिर या फिर गंगा घाट, यहां शहनाई बजाने में एक अलग ही सुकून मिलता है।”
उन्हें अमेरिका में बसने का भी ऑफर दिया गया था। लेकिन, वह भारत को नहीं छोड़ सकते थे। यहां तक कि बनारस छोड़ने के ख्याल से ही वह व्यथित हो जाते थे। बिस्मिल्लाह खान ने इस प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया था, "अमेरिका में आप मेरी गंगा कहां से लाओगे?"
उस्ताद ने न केवल भारत, बल्कि अमेरिका, कनाडा, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और ईरान जैसे देशों में अपनी शहनाई का जादू बिखेरा।
उस्ताद को पद्मश्री (1961), पद्म भूषण (1968), पद्म विभूषण (1980) और भारत रत्न (2001) से सम्मानित किया गया। उनकी आखिरी इच्छा थी कि वे इंडिया गेट पर शहीदों को शहनाई बजाकर श्रद्धांजलि दें, लेकिन यह पूरी नहीं हो सकी। 21 अगस्त 2006 को 90 साल की उम्र में वे दुनिया से रुखसत हो गए।