क्या जानते हैं आप आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे के बारे में?

सारांश
Key Takeaways
- आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे भारतीय रसायन विज्ञान के जनक माने जाते हैं।
- उन्होंने 700 रुपए में देश की पहली फार्मा कंपनी की स्थापना की।
- उनकी खोजों ने रसायन विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- प्रफुल्ल चंद्र रे की साधारणता में महानता है।
- उनका जीवन संघर्ष और सफलता की प्रेरणा है।
नई दिल्ली, 15 जून (राष्ट्र प्रेस)। देश की पहली फार्मा कंपनी के संस्थापक आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रे की पुण्यतिथि 16 जून को मनाई जाएगी। उन्हें "भारतीय रसायन विज्ञान का जनक" माना जाता है। एक शिक्षाविद्, परोपकारी और साधारण व्यक्तित्व के चलते उन्हें आचार्य की उपाधि भी दी गई।
प्रफुल्ल चंद्र रे का जन्म 2 अगस्त 1861 को बंगाल के रारुली में हुआ था, जो वर्तमान में बांग्लादेश में स्थित है। उनके पिता हरीश चंद्र रे एक जमींदार थे, जो शिक्षा के प्रति समर्पित थे और घर में एक विशाल पुस्तकालय रखते थे। उनकी मां भुबनमोहिनी देवी भी शिक्षित और उदार विचारों की महिला थीं।
जब वह नौ वर्ष के थे, उनका परिवार कोलकाता चला गया और उन्होंने हेयर स्कूल में दाखिला लिया। कोलकाता में प्रफुल्ल गंभीर बीमार पड़ गए और 1874 में परिवार अपने गांव वापस लौट गया। उन्हें स्वस्थ होने में दो साल लगे और इस दौरान उन्होंने अपने पिता की पुस्तकालय की किताबों का गहन अध्ययन किया। कोलकाता वापस आने पर उन्होंने एलबर्ट स्कूल में दाखिला लिया। 1879 में इंटरेंस परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने मेट्रोपोलिटन कॉलेज (अब विद्यासागर कॉलेज) से पढ़ाई की। उन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज से रसायन विज्ञान का अध्ययन शुरू किया, जो जल्दी ही उनके लिए आकर्षण का केंद्र बन गया। उन्होंने घर पर एक प्रयोगशाला स्थापित की और प्रयोग करना शुरू कर दिया।
1882 में प्रफुल्ल रे को स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में स्कॉलरशिप मिली। उन्होंने 1885 में वहां से स्नातक (बी. एससी.) की डिग्री प्राप्त की और 1887 में डी.एससी. की डिग्री ली। उन्होंने वहां भौतिकी और रसायन विज्ञान के प्रसिद्ध विद्वानों, सर जॉन इलियट और सर ऐलेक्जैंडर पेडलर से शिक्षा ली।
भारत लौटने के बाद कुछ समय कोलकाता में बिताया। अगस्त 1888 से जून 1889 के बीच उनके पास कोई नौकरी नहीं थी, जिससे उन्हें गहन अध्ययन का समय मिला। 1889 में उन्हें प्रेसिडेंसी कॉलेज में रसायन विज्ञान के सहायक प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया और वहां एक अनुसंधान प्रयोगशाला स्थापित की। उन्हें ऑर्गेनिक और इनऑर्गेनिक नाइट्राइट पर अनुसंधान के लिए जाना जाता है, जिसके चलते उन्हें "मास्टर ऑफ नाइट्राइट्स" का उपनाम मिला।
प्रफुल्ल चंद्र रे के जीवन में संघर्षों की कमी नहीं थी। जब उन्होंने इंडियन एज्युकेशनल सर्विस के लिए आवेदन किया, तो रंगभेद के कारण उन्हें असफलता का सामना करना पड़ा। बाद में एक और घटना हुई जब वह कलकत्ता प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ाते थे, वहां कम योग्यता वाले अंग्रेज अधिकारी भी थे, जो उच्च पदों पर थे। प्रफुल्ल चंद्र रे ने इसके खिलाफ आवाज उठाई, लेकिन उन्हें ताने सुनने पड़े। हालांकि, इस स्थिति ने उन्हें प्रेरित किया कि उन्होंने विदेशी शैली की दवाइयों का निर्माण शुरू किया।
उन्होंने 1892 में 700 रुपए की पूंजी लगाकर बंगाल केमिकल वर्क्स नामक कंपनी की स्थापना की। शुरुआत में कंपनी केवल हर्बल और पारंपरिक भारतीय दवाएं बनाती थी। 1901 में उनकी कंपनी लिमिटेड कंपनी बन गई और इसका नाम बंगाल केमिकल एंड फार्मास्युटिकल्स वर्क्स लिमिटेड रखा गया। यह देश की पहली स्वदेशी फार्मा कंपनी थी, जिसने भारत में औद्योगिक और वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा दिया।
इस बीच, 1896 में उन्होंने स्थिर यौगिक मर्क्यूरस नाइट्राइट की खोज की, जो उनके भविष्य के अनुसंधानों की नींव बनी। उन्होंने 150 से अधिक मूल अनुसंधान लेख प्रकाशित किए और 'द हिस्ट्री ऑफ हिंदू केमिस्ट्री' नामक किताब लिखी, जिसका पहला वॉल्यूम 1902 में और दूसरा 1908 में प्रकाशित हुआ। इसमें प्राचीन भारतीय औषधियों के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है।
1916 में प्रेसिडेंसी कॉलेज से रिटायर होने के बाद उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी में अध्यापन शुरू किया, जहां उन्होंने 20 साल बिताए।
उनका निधन 16 जून 1944 को हुआ। रसायन विज्ञान के क्षेत्र में उनके योगदान को मान्यता देते हुए 1917 में उन्हें 'कंपेनियन ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर' की उपाधि से सम्मानित किया गया था। प्रफुल्ल चंद्र रे न केवल भारत, बल्कि संपूर्ण विश्व के लिए एक प्रेरणा स्रोत हैं। उनकी सरलता और सफलता ने महात्मा गांधी को भी प्रभावित किया।