क्या वाजपेयी के 'अटल' निर्णय ने पोखरण में भारत का इतिहास बदल दिया?
Key Takeaways
- 11 मई 1998 को भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया।
- इस परीक्षण का उद्देश्य भारत की सामरिक आत्मनिर्भरता को बढ़ाना था।
- प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस साहसिक निर्णय का नेतृत्व किया।
- भारत अब अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर निर्भर नहीं है।
- इस परीक्षण ने भारत को एक परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बना दिया।
नई दिल्ली, 24 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। 11 मई 1998, दोपहर के ठीक 3 बजकर 45 मिनट, राजस्थान के पोखरण की तपती रेत के नीचे एक नया इतिहास लिखा जा रहा था। उस समय भारत केवल एक परीक्षण नहीं कर रहा था, बल्कि अपनी सामरिक आत्मनिर्भरता की एक नई कहानी बना रहा था। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मार्गदर्शन में भारत ने एक साहसिक कदम उठाया, जिसकी कल्पना वर्षो से की जा रही थी, लेकिन उस पर निर्णय लेने का साहस कम ही दिखाया गया था।
बिना किसी विदेशी सहायता के, अंतरराष्ट्रीय दबावों और विशेषकर अमेरिका की कड़ी नजर के बावजूद, भारत ने परमाणु परीक्षण को सफलतापूर्वक संपन्न किया। यह कोई साधारण कार्य नहीं था। 'न्यूक्लियर हब' माने जाने वाले देश हमेशा उन राष्ट्रों पर नजर रखते थे, जिनके पास परमाणु हथियार नहीं थे। भारत भी उन्हीं देशों की सूची में था, जिन्हें इस शक्ति से दूर रखने की कोशिशें होती रहीं। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी का निर्णय केवल उस समय की आवश्यकता नहीं बल्कि भविष्य के लिए एक रणनीति भी थी।
25 दिसंबर 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने भारतीय राजनीति में अपनी पहचान बनाई। उन्होंने यह प्रतिष्ठा कठिन राजनीतिक तपस्या और साधना से अर्जित की थी।
उनके निर्णय अक्सर कठिन और चुनौतीपूर्ण होते थे, और 1998 का परमाणु परीक्षण भी ऐसा ही था, जिसने उन्हें आलोचनाओं का सामना करने पर मजबूर किया, लेकिन भविष्य में भारत को एक सुरक्षित, सशक्त और आत्मविश्वासी राष्ट्र बनाने में मदद की। यह सिर्फ एक विस्फोट नहीं था, बल्कि भारत के आत्मसम्मान और सामरिक संप्रभुता की एक घोषणा थी।
परीक्षण के लिए गड्ढा खोदा गया था, सुरंग तैयार थी, और परीक्षण की तिथि निर्धारित की गई थी। लेकिन अंतिम समय में परीक्षण रद्द कर दिया गया था, क्योंकि विदेशी दबाव था। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने एक मजबूत भारत का सपना देखा था, और जब उन्हें अवसर मिला, तो उन्होंने इसे वास्तविकता में बदल दिया।
18 मार्च 1998 को जब वे सत्ता में लौटे, तो उन्होंने वैज्ञानिकों को परीक्षण करने की अनुमति दे दी। 1998 में उनकी सरकार 13 पार्टियों की गठबंधन सरकार थी। शपथ ग्रहण के कुछ दिन बाद पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उनसे मुलाकात की और कहा, "सामग्री तैयार है, आप आगे बढ़ सकते हैं।" संसद में अपनी ताकत दिखाने के लगभग पखवाड़े बाद ही अटल बिहारी वाजपेयी ने डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम और डॉक्टर चिदंबरम को बुलाकर परमाणु परीक्षण की तैयारी करने का आदेश दे दिया।
एपीजे अब्दुल कलाम ने सलाह दी थी कि परीक्षण बुद्ध पूर्णिमा के दिन किया जाए, जो 11 मई 1998 को पड़ रही थी।
एक इंटरव्यू में एपीजे अब्दुल कलाम ने कहा, "बहुत दबाव था। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने फैसला किया कि भारत डीआरडीओ टीम और एटॉमिक एनर्जी टीम के साथ परीक्षण करेगा। यह निर्णय भारत को परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र बनाने में महत्वपूर्ण था।"
उस समय के प्रधानमंत्री के प्रिंसिपल सेक्रेटरी राजेश मिश्रा को वैज्ञानिकों के साथ समन्वय का कार्य सौंपा गया था। अटल बिहारी वाजपेयी से अनुमति मिलने के बाद काम सावधानी से शुरू हुआ। निर्माण का कार्य आमतौर पर रात में किया जाता था, ताकि अमेरिकी उपग्रहों की नजर से बचा जा सके।
इस प्रोजेक्ट को ऑपरेशन शक्ति का कोड नाम दिया गया था। इस ऑपरेशन में शामिल वैज्ञानिक कभी एक साथ यात्रा नहीं करते थे और उनका कोड नाम होता था। एपीजे अब्दुल कलाम का कोड नाम 'मेजर जनरल पृथ्वीराज' था, जबकि चिदंबरम का कोड नाम 'नटराज' था। भारतीय सेना की 58वीं इंजीनियर्स रेजिमेंट ने ग्राउंड वर्क पूरा करने में मदद की। अंततः हिसाब-किताब का समय आ गया।
दोपहर 3.45 बजे, पहला बम फोड़ दिया गया। इस परीक्षण ने भारत को वह परमाणु प्रतिरोध (न्यूक्लियर डिटरेंस) दिया, जिसकी उसे लंबे समय से आवश्यकता थी। दुनिया को स्पष्ट संदेश मिला कि भारत अब अपनी सुरक्षा के लिए किसी पर निर्भर नहीं है और किसी भी आक्रामकता का माकूल जवाब देने में सक्षम है।