क्या केरवा से फलेला घेवद से: छठ के गीतों में बसी है ममता और मिट्टी की महक?

सारांश
Key Takeaways
- छठ पर्व का महत्व
- लोकगीतों की गहराई
- प्रकृति का मानवीकरण
- भक्ति का भाव और अभिव्यक्ति
- संवाद का माध्यम
नई दिल्ली, 21 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। लोकपर्व छठ अब वैश्विक स्वरूप धारण कर चुका है। बिहार या पूर्वांचल के निवासी, चाहे वे विश्व के किसी भी कोने में हों, गर्व और आदर के साथ छठी मईया की पूजा करते हैं। पर्व की आहट आते ही गांवों की पगडंडियां, तालाबों के किनारे, मिट्टी के आंगन और नदी के घाट एक अदृश्य सुर से गूंज उठते हैं।
यह शोर नहीं है, न ही लाउडस्पीकर की आवाज। यह होती है माताओं और बहनों की धीमी, गहराई में उतर जाने वाली लोकधुन— “केरवा से फलेला घेवद से…”। इन गीतों में न तो देवता का औपचारिक नाम होता है, न वेद-मंत्रों की चमक, लेकिन फिर भी इनमें एक संपूर्ण ब्रह्मांड समाहित होता है: जल, जंगल, जड़, जन और जननी। छठ के ये लोकगीत उस भाव का परिचय देते हैं जहां पूजा शब्दों से नहीं, सुरों से होती है।
छठ का व्रत केवल नियमों और कठोर संकल्प का नहीं, बल्कि संवाद का पर्व है— प्रकृति से संवाद, पूर्वजों से संवाद, और अंततः उस अदृश्य शक्ति से संवाद जिसे लोग सूर्य कहते हैं लेकिन महसूस मातृभाव की तरह करते हैं। जब व्रती महिला “हे छठी मइया, तोहार महिमा अपार…” गाती है, तो वह केवल एक देवी को नहीं पुकारती, बल्कि अपनी हर चिंता, हर आशंका और हर उम्मीद को उसी धुन में समेट देती है। ये गीत किसी रेडियो या किताब से नहीं आते, ये पीढ़ियों की गोद में पले होते हैं।
लोकगीतों में छठ की सबसे बड़ी खूबी है प्रकृति का मानवीकरण। नदी को बहन कहा जाता है, सूरज को भाई, और सांझ को एक थका हुआ यात्री। जैसे एक गीत में कहा जाता है, “गंगा मइया तोहार आरती उतारब…” — यहां गंगा केवल एक जलधारा नहीं, बल्कि एक मां है जिसकी गोद में समर्पण होता है। यही भाव लोकमन को धर्म से नहीं, धरती से जोड़ता है। छठ का गीत दर्शाता है कि पूजा खेत की मेड़ पर भी की जा सकती है।
इन गीतों में स्त्रियों का दर्द और अद्भुत धैर्य प्रकट होता है। कई बार व्रती अपने रिश्ते की गरिमा का ध्यान रखते हुए ताने भी देती है। कहती है, “तू त आन्हर हुईहे रे बटोहिया, इ दल तोरा न बुझाए।” यह कोई मंत्र नहीं है, लेकिन इससे बड़ी प्रार्थना कौन-सी हो सकती है?
जब लकड़ी के चूल्हे पर ठेकुआ पकता है और आंगन में धुआं घुलता है, तभी एक ऐसी धुन उठती है जिसमें पूरे घर की चिंता घुल जाती है। छठ के गीत बताते हैं कि स्त्री केवल व्रती नहीं, बल्कि इस पर्व की कवयित्री भी है।
सबसे अनोखी बात यह है कि ये लोकगीत कभी एक जैसे नहीं रहते। हर गांव में, हर घर में, हर मां अपनी परिस्थितियों के अनुसार इसमें कुछ जोड़ती-घटाती रहती है। कभी बेटी के विवाह की चिंता, कभी बेटे की नौकरी की आस, कभी घर की गरीबी का दुख, सब कुछ सुर बनकर बहता जाता है।
शहरों में जब छठ मनाया जाता है, तो ये लोकगीत ईयरफोन या रिकॉर्डिंग से नहीं गाए जाते। भले ही सब कुछ प्लास्टिक के टेंट में हो, घास के मैट की जगह तरपाल हो, लेकिन जब एक व्रती मां की आवाज उठती है- “उठ ए सूरज मल, कर अरघ स्वीकार…”, तो पूरा दृश्य अचानक गांव में परिवर्तित हो जाता है। कोई पुल के नीचे अस्थायी घाट बनाता है, कोई बाल्टी में जल भरकर आसमान की ओर देखता है, लेकिन गीत वही होता है जिसके तार सदियों से जुड़े हैं।
इन लोकगीतों में एक गूढ़ तत्व और है- आसक्ति और विरक्ति का संगम। त्योहारों में जहां बाजार अब पूजा का सामान तय करता है, वहां छठ के गीत आज भी बताते हैं कि कुछ पर्व ऐसे होते हैं जिन्हें खरीदा नहीं जा सकता।
शायद यही कारण है कि कहा जाता है— छठ पूजा में मूर्ति नहीं होती, पर भक्ति की सबसे जीवंत प्रतिमा यहीं प्रकट होती है। न फूलों का जंगल, न घंटों की गूंज— केवल मिट्टी, जल और मानवीय स्वर का संगम। छठ के लोकगीत हमें याद दिलाते हैं कि जब भक्ति भाषा छोड़कर भाव बन जाती है, तो वह नदी की तरह बहती है, हवा की तरह गाती है।
आज भी जब तालाबों के किनारे अंधेरा छा जाता है और व्रती स्त्री जल में खड़ी होकर धुन उठाती है, तो लगता है जैसे सैकड़ों वर्षों की विरासत एक ही सांस में समा गई हो। सूरज की पहली किरण का इंतजार करते हुए वह गाती है- "कब उगिहें चकवा कब मारब फकवा" जो यह एहसास दिलाती है कि वह अरघ की प्रतीक्षा कर रही है, लेकिन साथ ही अपनी तपस्या का अनुभव भी करा देती है।
सूर्योदय के क्षण में कोई भक्त नहीं, केवल एक मां होती है, जो उनके उगते ही सोहर गाकर छठी मईया को बधाई देती हुई आगे बढ़ जाती है।