क्या 'हूल' के 170 साल: झारखंड के भोगनाडीह से 1855-56 में शुरू हुई थी अंग्रेजों के खिलाफ पहली क्रांति?

सारांश
Key Takeaways
- हूल क्रांति को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम माना जा सकता है।
- यह क्रांति 1855 में झारखंड के भोगनाडीह से शुरू हुई थी।
- सिदो-कान्हू जैसे नायकों ने इस संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- इस विद्रोह में 50 हजार से अधिक लोग शामिल हुए थे।
- यह क्रांति अंग्रेजों के खिलाफ एक सुनियोजित विद्रोह था।
रांची, 29 जून (राष्ट्र प्रेस)। भारतीय इतिहास में अधिकांश किताबों में स्वतंत्रता की पहली लड़ाई के रूप में 1857 के सिपाही विद्रोह का जिक्र मिलता है, लेकिन कई शोधकर्ता और जनजातीय इतिहास के विशेषज्ञ 30 जून 1855 को झारखंड के छोटे से गांव भोगनाडीह से प्रारंभ हुए ‘हूल’ को देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम का दर्जा देने की कोशिश कर रहे हैं।
‘हूल’ संथाली भाषा में उस क्रांति का नाम है, जिसने 1855-56 के दौरान तत्कालीन बिहार से बंगाल तक अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी थी। इस वर्ष 30 जून को इस क्रांति के 170 साल पूरे हो रहे हैं और इस अवसर पर भोगनाडीह गांव में शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए हजारों लोग एकत्र होंगे। यहां कई मंत्रियों के अलावा विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता भी शामिल होंगे।
अंग्रेजों के खिलाफ इस विद्रोह के नायकों में सिदो-कान्हू का नाम प्रमुखता से लिया जाता है, जिनको शासन ने मौत की सजा दी थी। इनके दो अन्य भाई चांद-भैरव और दो बहनें फूलो-झानो ने भी इस क्रांति के दौरान अपने प्राणों की आहुति दी थी। भारत सरकार ने सिदो-कान्हू पर वर्ष 2002 में डाक टिकट जारी किया था, लेकिन आज तक इन नायकों को ऐतिहासिक किताबों में उचित स्थान नहीं मिला।
साम्यवादी विचारक कार्ल मार्क्स ने अपनी प्रख्यात रचना 'नोट्स ऑन इंडियन हिस्ट्री' में इस जन युद्ध का उल्लेख किया है। इससे पहले लंदन से प्रकाशित अंग्रेजी अखबारों ने भी संथाल हूल पर विस्तृत रिपोर्टें प्रकाशित की थीं। इन रिपोर्टों ने कार्ल मार्क्स जैसे दार्शनिकों को आदिवासियों के संघर्ष की जानकारी दी।
जनजातीय इतिहास के शोधकर्ताओं के अनुसार, इस स्वतंत्रता संग्राम में एक वर्ष के भीतर दस हजार से अधिक संथाल आदिवासी और स्थानीय लोग शहीद हुए थे। ‘झारखंड इनसाइक्लोपीडिया’ के लेखक सुधीर पाल का कहना है कि एक साल तक चले इस संघर्ष को भारतीय इतिहास ने नजरअंदाज किया है, जबकि इसके कई दस्तावेज और सबूत हैं कि 170 साल पहले की इस लड़ाई के कारण राजमहल की पहाड़ियों में ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया था।
रांची विश्वविद्यालय के पूर्व डीन और इतिहासकार डॉ. आईके चौधरी का मानना है, ''हूल क्रांति को इतिहास में वह स्थान नहीं मिला, जिसका वह हकदार है। बिरसा मुंडा के आंदोलन की तुलना में इस क्रांति में अधिक लोग मारे गए थे और अंग्रेजों को भारी नुकसान हुआ था। इस क्रांति की वजह से अंग्रेजों को शिकस्त का सामना करना पड़ा, इसलिए यूरोपीय इतिहासकारों ने इस पर लिखने से परहेज किया।''
ब्रिटिश शासन के दस्तावेजों के अनुसार, यह एक सुनियोजित युद्ध था, जिसकी तैयारी भोगनाडीह के सिदो मुर्मू ने अपने भाइयों कान्हू, चांद एवं भैरव के साथ मिलकर की थी। जब सभी तैयारियां पूरी हो गईं, तो सैन्य दल, छापामार टुकड़ियां, गुप्तचर दल, आर्थिक संसाधन जुटाने वाले दल आदि का गठन किया गया।
30 जून को सिदो-कान्हू ने एक विशाल सभा का आयोजन कर अंग्रेजों को देश छोड़ने का समन जारी किया था। संथालों की ओर से जारी समन 'ठाकुर का परवाना' के तहत राजस्व संग्रह का अधिकार केवल संथालों को दिया गया था।
इस ऐतिहासिक आंदोलन में 52 गांवों के 50 हजार से अधिक लोग शामिल हुए थे। झारखंड के जनजातीय इतिहास पर शोध करने वाले अश्विनी कुमार पंकज ने लिखा है, ''हूल के पहले और बाद में ऐसी किसी जनक्रांति का विवरण नहीं मिलता, जो पूरी तैयारी और जन-घोषणा के साथ की गई हो।''
रांची स्थित झारखंड सरकार के पूर्व आईएएस रणेंद्र का कहना है कि हूल क्रांति में झारखंड के राजमहल का पूरा जनपद एकजुट हुआ था। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना को आदिम हथियारों से दो-दो युद्धों में पराजित किया। 16 जुलाई 1855 को पीरपैंती के युद्ध में मेजर बरोज की सेना हार गई।
1856 तक चले इस विद्रोह को कुचलने में अंग्रेजी सेना को भयंकर संघर्ष करना पड़ा। कुछ गद्दारों की वजह से कान्हू को गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ ही दिनों बाद सिदो भी पकड़े गए। सिदो को फांसी पर लटका दिया गया था।