क्या सिस्टर निवेदिता ने विदेशी धरती से भारत की सेवा में अपनी पहचान बनाई?
सारांश
Key Takeaways
- समर्पण और साहस से किसी भी व्यक्ति का जीवन बदल सकता है।
- जन्म स्थान से अधिक महत्वपूर्ण कार्य हैं।
- शिक्षा से महिलाओं का सशक्तिकरण संभव है।
- राष्ट्रभक्ति की भावना से समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है।
- त्याग और सेवा का जीवन ही सच्चे अर्थों में महानता है।
नई दिल्ली, 27 अक्टूबर (राष्ट्र प्रेस)। यह कहानी है सिस्टर निवेदिता की, एक ऐसी महिला, जिसने विदेशी धरती पर जन्म लेकर भी अपने समर्पण और साहस से भारतीय इतिहास पर अमिट छाप छोड़ी। उनका जीवन त्याग, सेवा और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक बन गया। उन्होंने साबित किया कि जन्म की जगह मायने नहीं रखती, बल्कि समर्पण, साहस और निष्ठा से किसी भी राष्ट्र और समाज में अमिट योगदान दिया जा सकता है।
मार्गरेट नोबल का जन्म 28 अक्टूबर 1867 को आयरलैंड के टाइरोन में हुआ। उनके पिता सैमुअल एक पादरी थे और माता मैरी दयालु स्वभाव की। उनके दादा जॉन नोबल भी पादरी थे, जिनमें ईश्वर और मातृभूमि के प्रति गहरा प्रेम था। मार्गरेट ने अपने दादा से साहस और देशभक्ति, और पिता से गरीबों के प्रति करुणा पाई। बचपन में ही वह अक्सर अपने पिता और दादा के साथ गरीबों के घर जाकर सेवा किया करती थीं।
जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, मार्गरेट में तत्कालीन रूढ़िवादी धर्म के तौर-तरीकों के प्रति असंतोष बढ़ता गया। 1895 में उनका जीवन मोड़ पर आया, जब स्वामी विवेकानंद वेदांत का संदेश लेकर लंदन आए। उनके विचार और व्यक्तित्व मार्गरेट के लिए जैसे 'जीवनदायिनी जल' साबित हुए।
तीन साल बाद उन्होंने भारत को अपनी कर्मभूमि बनाने का निर्णय लिया और 1898 में कोलकाता आईं। स्वामी विवेकानंद ने 25 मार्च 1898 को उन्हें ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा दी और नाम 'निवेदिता' रखा, जिसका अर्थ है 'ईश्वर को समर्पित।'
मार्च 1899 में कोलकाता में प्लेग की महामारी फैल गई। विवेकानंद से प्रेरित निवेदिता ने समर्पित युवाओं से एक समिति बनाई और सड़कों, गलियों की सफाई और पीड़ितों की देखभाल में जुट गईं। उन्होंने चौबीसों घंटे काम किया, भोजन और आराम का त्याग किया।
13 नवंबर 1898 को पावन माता के आशीर्वाद से निवेदिता ने कोलकाता के बागबाजार में लड़कियों का स्कूल खोला। उस समय रूढ़िवादी समाज में माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल भेजने में हिचकते थे। फिर भी निवेदिता ने अलग-अलग उम्र की लड़कियों के साथ शिक्षा की शुरुआत की।
उनके विश्वास को पूरा करने के लिए, उन्होंने अपने दुख को भुलाकर तुरंत कार्य करना शुरू कर दिया। उन्होंने उस देश की मुक्ति के लिए कार्य करने की शपथ ली, जिसे उन्होंने अपनाया था।
निवेदिता ने अपने स्कूल को राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र बनाया, जहां बंकिमचंद्र का 'वंदे मातरम' प्रार्थना के रूप में गाया जाता था। उन्होंने यह उपदेश दिया कि राष्ट्रवादी भावना और श्री रामकृष्ण और विवेकानंद के आदर्शों में विश्वास आशा की एक नई सुबह का सूत्रपात करेगा।
उनके लेखन और भाषणों ने युवाओं को एक उत्कृष्ट और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। वे रवींद्रनाथ टैगोर और अन्य प्रख्यात राजनेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत थीं।
निवेदिता ने भारतीय सांस्कृतिक विरासत पर पुस्तकें लिखीं और प्रतिभाशाली कलाकारों को प्रोत्साहित किया। उन्होंने 1902 से 1904 तक व्यापक व्याख्यान यात्राओं पर जाकर लोगों से भारत को स्वतंत्र बनाने के लिए प्रयास करने का आग्रह किया।
जब ब्रिटिश सरकार ने बंगाल का विभाजन किया, तो निवेदिता भी इसमें कूद पड़ीं। पूर्वी बंगाल में विनाशकारी बाढ़ और अकाल के दौरान उन्होंने मीलों पानी में पैदल चलकर पीड़ितों की सहायता की।
लगातार काम और आराम की कमी ने निवेदिता के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाला। उन्होंने एक कानूनी वसीयत बनाई और 13 अक्टूबर 1911 को दार्जिलिंग में अंतिम सांस ली।