क्या सुदामा पांडेय 'धूमिल' ने हिंदी कविता को नई दिशा दी?

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क्या सुदामा पांडेय 'धूमिल' ने हिंदी कविता को नई दिशा दी?

सारांश

सुदामा पांडेय 'धूमिल' की कविताएं न केवल आजादी के सपनों को उजागर करती हैं, बल्कि समाज में व्याप्त असमानता और पूंजीवाद पर भी प्रहार करती हैं। उनके जीवन और कार्यों में छिपा है एक प्रेरणादायक संदेश। जानिए कैसे उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं।

Key Takeaways

  • धूमिल की कविताएं समाज के मुद्दों पर प्रकाश डालती हैं।
  • उन्होंने आर्थिक संघर्षों की कहानी को कविता में ढाला।
  • उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं।
  • वे हिंदी साहित्य के अनूठे हस्ताक्षर हैं।
  • धूमिल का जीवन हमें सादगी और संघर्ष का पाठ पढ़ाता है।

नई दिल्ली, 8 नवंबर (राष्ट्र प्रेस)। सुदामा पांडेय 'धूमिल' की कविताएं न केवल आजादी के सपनों के मोहभंग को उजागर करती हैं, बल्कि पूंजीवाद, राजनीति और आम आदमी की विवशता पर एक करारा प्रहार करती हैं। इसी वजह से चालीस के दशक में जन्मे इस कवि की रचनाएँ आज के समय में भी अत्यंत प्रासंगिक हैं।

धूमिल को 'हिंदी कविता का एंग्री यंगमैन' कहा जाता है, जिनकी आवाज़ ने 1960 के दशक के बाद की कविता को एक नई दिशा दी। उन्होंने 'धूमिल की अंतिम कविता' शीर्षक से कुछ पंक्तियों में समाज की सच्चाई को बखूबी लिखा, जैसे 'लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो। उस घोड़े से पूछो, जिसके मुंह में लगाम है।'

सुदामा पांडेय का जन्म 9 नवंबर 1936 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के खेवली गांव में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता, शिवनायक पांडेय, एक मुनीम थे, जो घर की आर्थिक जिम्मेदारियों को संभालते थे, जबकि माँ, रजवंती देवी, घर-गृहस्थी में लगी रहीं। लेकिन जीवन ने जल्दी ही कठोर परीक्षा ली। मात्र 11 वर्ष की उम्र में पिता का निधन हो गया, जिससे परिवार पर आर्थिक संकट आ गया।

बालक सुदामा को पढ़ाई छोड़कर मजदूरी करनी पड़ी। वे कलकत्ता चले गए, जहाँ उन्होंने लोहा-लकड़ी ढोने का कठिन श्रम किया। वहाँ एक फैक्ट्री में काम करते समय मालिक से विवाद हो गया, जिसके बाद वे वापस लौट आए। यही संघर्ष उनके काव्य का मूल स्वर बना, जिसमें उन्होंने मजदूरों की पीड़ा और पूंजीपतियों के शोषण को शामिल किया।

1953 में हाईस्कूल पास करने के बाद, 1957 में काशी विश्वविद्यालय के औद्योगिक संस्थान (आईटीआई) में प्रवेश लिया। 1958 में प्रथम श्रेणी से प्रथम स्थान हासिल कर विद्युत डिप्लोमा प्राप्त किया और वहीं विद्युत अनुदेशक के पद पर नियुक्त हो गए। बाद में पदोन्नति पाकर बलिया चले गए, लेकिन लेखन के प्रति उनका जुनून कभी कम नहीं हुआ।

धूमिल की कविताएं साठोत्तरी पीढ़ी की प्रतिनिधि हैं। वे नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर थे, जिन्होंने मुक्तिबोध की 'अंधेरे में' जैसी कविताओं को आगे बढ़ाया।

उनकी प्रमुख रचनाओं में 'संसद से सड़क तक' (1972), 'कल सुनना मुझे' (1977), 'सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र' (1984), और 'बांसुरी जल गई' शामिल हैं। 'मोचीराम', 'पटकथा', 'बीस साल बाद', 'रोटी और संसद', 'लोहे का स्वाद', और 'घर में वापसी' जैसी कविताएं हिंदी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुई हैं।

उनकी कविता में प्रतीकवाद, लाक्षणिकता और खड़ी बोली का प्रयोग है, जो आम बोलचाल से निकलकर गहन संवेदना पैदा करता है। धूमिल ने कहा था, 'मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है।' यह पंक्ति सामाजिक असमानता की मार्मिक अभिव्यक्ति है।

धूमिल का जीवन सादगीपूर्ण था। 10 फरवरी 1975 को ब्रेन ट्यूमर से मात्र 38 वर्ष की छोटी आयु में उनकी मृत्यु हो गई, तो परिवार को रेडियो पर खबर सुनकर पता चला कि वे प्रसिद्ध कवि थे। उन्हें मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।

Point of View

बल्कि यह हमारे समाज की जटिलताओं को भी समझने में मदद करता है। उनका जीवन और लेखन हमें यह सिखाता है कि साहित्य केवल शब्दों का खेल नहीं है, बल्कि यह समाज के हर पहलू को छूता है।
NationPress
08/11/2025

Frequently Asked Questions

धूमिल की कविताएं किस विषय पर केंद्रित हैं?
धूमिल की कविताएं मुख्यतः पूंजीवाद, राजनीति और आम आदमी की विवशता पर केंद्रित हैं।
धूमिल का जीवन संघर्ष क्या था?
धूमिल ने अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में आर्थिक कठिनाइयों का सामना किया और मजदूरी की, जिससे उनके लेखन को प्रेरणा मिली।
धूमिल की प्रमुख रचनाएं कौन सी हैं?
उनकी प्रमुख रचनाओं में 'संसद से सड़क तक', 'कल सुनना मुझे', और 'बांसुरी जल गई' शामिल हैं।
धूमिल को किस उपाधि से जाना जाता है?
धूमिल को 'हिंदी कविता का एंग्री यंगमैन' कहा जाता है।
धूमिल का योगदान हिंदी साहित्य में क्या है?
धूमिल ने नई कविता के आंदोलन को आगे बढ़ाया और समाज की असमानताओं को उजागर किया।