क्या रिनपास ने मानसिक रोगियों के लिए उम्मीद की नई किरण प्रदान की है?

सारांश
Key Takeaways
- रिनपास की स्थापना 1925 में हुई थी।
- यह मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का एक प्रमुख केंद्र है।
- संस्थान ने 100 साल में लाखों लोगों को नई जिंदगी दी है।
- यह बिहार, बंगाल और ओड़िशा के मरीजों का भी इलाज करता है।
- डॉ. अमूल रंजन सिंह के नेतृत्व में रिनपास ने मानसिक स्वास्थ्य में सुधार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
रांची, 3 सितंबर (राष्ट्र प्रेस)। कुछ लोग किताबों के बोझ तले टूट गए। कुछ ने नौकरी खोकर अंधकार में डूब गए। किसी ने अपनों के तिरस्कार से मनोबल खो दिया। और कुछ ने इश्क में नाकामी के चलते संतुलन खो दिया। ऐसे ही लोगों के जीवन में रांची स्थित संस्थान रिनपास यानी ‘रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकेट्री एंड एलायड साइंस’ उम्मीदों की नई रोशनी भर रहा है।
4 सितंबर को यह संस्थान अपनी स्थापना के 100 साल पूरे करने जा रहा है। रांची के कांके क्षेत्र में हरियाली के बीच बसा रिनपास केवल एक अस्पताल नहीं है, बल्कि भारतीय मनोचिकित्सा के इतिहास का एक जीवंत दस्तावेज है। अब यह संस्थान आधुनिक मनोचिकित्सा, काउंसलिंग और पुनर्वास के क्षेत्र में मानक तय कर रहा है।
आज यह न केवल झारखंड, बल्कि पूरे पूर्वी भारत के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का सबसे बड़ा आधार है। रांची की धरती पर इस संस्थान की यात्रा भले ही 100 साल पुरानी हो, लेकिन इसकी कहानी की शुरुआत 1795 में हुई थी। मुंगेर (बिहार) में गंगा नदी के किनारे एक मानसिक चिकित्सालय की नींव रखी गई थी, जिसका नाम था- ल्यूनेटिक एसाइलम। करीब 25 साल बाद, 1821 में इसे पटना कॉलेजिएट स्कूल परिसर में स्थानांतरित कर दिया गया। लंबे समय तक यह वहीं रहा, लेकिन जैसे-जैसे मरीजों की संख्या बढ़ी और स्थान कम पड़ने लगा, इसे नई जगह की तलाश करनी पड़ी। यह खोज रांची के कांके तक पहुंची, जहां 4 सितंबर, 1925 को संस्थान को आधिकारिक रूप से स्थानांतरित कर दिया गया।
उस समय यहां मरीजों की संख्या सिर्फ 110 थी। दिलचस्प बात यह है कि संयुक्त भारत के दौरान यहां सिर्फ बिहार, बंगाल और ओड़िशा ही नहीं, बल्कि आज के बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान, उससे पहले ढाका) के मरीज भी उपचार के लिए आते थे। उस समय इसका नाम इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ रखा गया था। 1958 में इसका नाम बदलकर रांची मानसिक आरोग्यशाला कर दिया गया। लेकिन असली मोड़ 1994 में आया, जब एक घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसके संचालन में दखल दिया और इसे स्वायत्त बनाने का आदेश दिया। लंबे समय बाद 10 जनवरी 1998 को यह संस्थान स्वायत्त हुआ और नए नाम रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकेट्री एंड एलायड साइंस (रिनपास) के साथ सामने आया।
यह नाम इसकी आधुनिक पहचान और विस्तृत सेवाओं का परिचायक बन गया। झारखंड राज्य बनने के समय, संस्थान में करीब 16,175 मरीज पंजीकृत थे। बिहार और ओड़िशा के मरीजों का उपचार यहां होता था और दोनों राज्य इलाज का खर्च वहन करते थे। एक समय था, जब इसे लोग ‘पागलखाना’ के नाम से जानते थे। सामाजिक कलंक और अज्ञानता ने मानसिक बीमारियों को मजाक और शर्म का विषय बना दिया था, लेकिन समय के साथ रिनपास ने इस धारणा को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आज इस संस्थान में देश के हर कोने से हर रोज करीब 600 लोग ओपीडी में उपचार कराने पहुंचते हैं। यहां भर्ती मरीजों की संख्या भी 500 से अधिक है। ऐसे मरीजों की संख्या लाखों में है, जो उपचार के बाद न केवल मानसिक रोग से उबरे, बल्कि नई जिंदगी की शुरुआत की। रिनपास के निदेशक डॉ. अमूल रंजन सिंह कहते हैं, 'रिनपास की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि इसने 100 साल की यात्रा में लाखों निराश लोगों में उम्मीद जगाई है। सबसे बड़ी बात यह है कि आज अगर मानसिक रोग के प्रति लोगों की धारणाएं बदली हैं और ग्रंथियां दूर हुई हैं, तो इसमें रिनपास जैसे संस्थान की बहुत बड़ी भूमिका है।'