क्या आप जानते हैं सेकेंड लेफ्टिनेंट रामा राघोबा राणे की शौर्य गाथा?

सारांश
Key Takeaways
- वीरता और समर्पण का प्रतीक: रामा राघोबा राणे का जीवन हमें साहस का पाठ पढ़ाता है।
- जवानों के लिए प्रेरणा: उनका बलिदान और नेतृत्व हर युवा के लिए एक प्रेरणा है।
- भारतीय सेना की मर्यादा की रक्षा: उन्होंने अपने साहस से भारत की संप्रभुता को बनाए रखा।
- एक उत्कृष्ट नेता: विपरीत परिस्थितियों में भी उन्होंने अपनी टुकड़ी को प्रेरित किया।
- परिवार और समाज में योगदान: उनका जीवन केवल युद्ध तक सीमित नहीं था, बल्कि एक प्रेरक नागरिक की भूमिका भी थी।
नई दिल्ली, 10 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। जब भारतीय सैनिकों की वीरता की कहानियों का जिक्र होता है, तो सेकेंड लेफ्टिनेंट रामा राघोबा राणे का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित होता है। 11 जुलाई को, हम उनकी पुण्यतिथि मनाते हैं, और पूरा देश उस अमर सपूत को नमन करता है, जिनकी वीरता, समर्पण, और नेतृत्व ने भारतीय सेना के इतिहास में एक अमिट अध्याय लिखा। 1994 में इसी दिन उनका निधन हुआ, लेकिन उनका जीवन आज भी प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है।
सेकेंड लेफ्टिनेंट राणे ने अपने अदम्य साहस से न केवल दुश्मन की ताकत को नष्ट किया, बल्कि भारत की संप्रभुता और सम्मान को भी बनाए रखा। उनका जीवन एक ऐसी दीपक की तरह है, जिसकी लौ हर पीढ़ी को रौशन करती रहेगी।
26 जून 1918 को कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के चेंडिया गांव में जन्मे रामा राघोबा राणे कोंकण क्षत्रिय मराठा समुदाय से थे। उनके पिता सरकारी सेवा में थे, जिससे उनकी पढ़ाई देश के विभिन्न हिस्सों में हुई। बचपन में ही 1930 के असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर उनमें देशभक्ति की भावना विकसित हुई। 1940 में जब द्वितीय विश्व युद्ध अपने चरम पर था, राणे ने भारतीय सेना में शामिल होने का निर्णय लिया। 10 जुलाई 1940 को, वह बॉम्बे इंजीनियर्स में शामिल हुए। उनकी दक्षता और अनुशासन ने उन्हें बैच का ‘सर्वोत्तम रिक्रूट’ बना दिया, जिसके बाद उन्हें नायक और बाद में कमांडेंट की पदवी दी गई।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बर्मा में जापानी सेनाओं के खिलाफ लड़ते हुए राणे ने वीरता की ऐसी मिसाल पेश की कि उन्हें हवलदार बनाया गया। उन्होंने दुश्मन के गोला-बारूद के ठिकानों को नष्ट किया, अपनी टुकड़ी को नदियों के पार करवाया, और सूझबूझ से दुश्मन से बचकर सुरक्षित वापसी कराई। इसके बाद, 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में उन्होंने वो कर दिखाया जो असंभव लगता था। उन्हें सेकेंड लेफ्टिनेंट बनाकर जम्मू-कश्मीर मोर्चे पर तैनात किया गया। इस युद्ध में उनका साहस भारतीय सेना की मर्यादा और संप्रभुता की रक्षा का प्रतीक बन गया।
8 अप्रैल 1948 को नौशेरा-राजौरी रोड ने रामा राघोबा राणे को इतिहास के सबसे बहादुर सैनिकों की सूची में शामिल कर दिया। पाकिस्तान समर्थित कबायली लड़ाकों ने राजौरी पर कब्जा कर लिया था। सेना को वहां पहुंचने के लिए रास्ता साफ करना आवश्यक था। यह कार्य सेकेंड लेफ्टिनेंट राणे और उनकी यूनिट को सौंपा गया। रास्ते में सुरंगें, बड़े पाइन के पेड़, उड़ा दिए गए पुल और दुश्मन की मशीनगनों की गोलियों की बौछार- हर बाधा के सामने राणे ने दीवार बनकर खड़े हो गए। मोर्टार से घायल होने के बावजूद, उन्होंने अपने घाव पर पट्टी बांधकर काम जारी रखा। कई रातें बिना भोजन और विश्राम के, अपनी जान की परवाह किए बिना, वह केवल भारतीय सेना को आगे बढ़ाने में जुटे रहे। उनकी इस अद्भुत वीरता और कार्यकुशलता के लिए उन्हें भारत के सर्वोच्च वीरता सम्मान ‘परमवीर चक्र’ से नवाजा गया।
रामा राघोबा राणे केवल एक सैनिक नहीं, बल्कि एक उत्कृष्ट नेता भी थे, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में अपनी टुकड़ी को दिशा दी और आत्मविश्वास भरा। उनका मानना था कि एक सच्चा सैनिक अपने देश के लिए मरता नहीं है, वह जीता है ताकि बाकी जी सकें। उनके नेतृत्व में, भारतीय सेना 12 अप्रैल 1948 को राजौरी तक पहुंची और उस पर पुनः कब्जा किया।
भारतीय नौसेना ने करवार स्थित वॉरशिप म्यूज़ियम में उनकी प्रतिमा स्थापित की है। शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया ने एक तेल टैंकर का नाम 'एमटी लेफ्टिनेंट राम राघोबा राणे, पीवीसी' रखा है। अपने सेवा काल में उन्होंने पांच बार 'मेंशन-इन-डिस्पैच' और आर्मी चीफ से विशेष प्रशंसा पत्र प्राप्त किया।
3 फरवरी 1955 को उन्होंने लीला राणे से विवाह किया और चार बच्चों के पिता बने। 25 जून 1968 को 21 वर्षों की सेवा के बाद सेवानिवृत्त हुए। उनका जीवन केवल युद्ध की गाथाओं तक सीमित नहीं रहा, बल्कि एक पारिवारिक व्यक्ति, एक प्रेरक और एक सजग नागरिक की भूमिका भी निभाई। 11 जुलाई 1994 को उन्होंने अंतिम सांस ली, लेकिन रामा राघोबा राणे आज भी हर युवा सैनिक के लिए प्रेरणा हैं जो भारत माता की रक्षा का संकल्प लेते हैं। उनके बलिदान की गूंज पीढ़ियों तक देशभक्ति के स्वर में गूंजती रहेगी।