क्या 'स्माइलिंग बुद्धा' के शिल्पकार डॉ. पीके अयंगर ने भारत के विज्ञान का युग समाप्त कर दिया?
सारांश
Key Takeaways
- डॉ. पीके अयंगर ने 'स्माइलिंग बुद्धा' के माध्यम से भारत को वैश्विक पहचान दिलाई।
- उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान को आत्मनिर्भरता के विकास से जोड़ा।
- उनकी दृष्टि ने भारतीय विज्ञान और तकनीक में नवाचार को बढ़ावा दिया।
- अयंगर पुरस्कार भारतीय प्रतिभाओं की सराहना करता है।
- वे विज्ञान को समाज के साथ जोड़ने के लिए कार्यरत रहे।
नई दिल्ली, 20 दिसंबर (राष्ट्र प्रेस)। कैलेंडर में 21 दिसंबर की तिथि भारतीय विज्ञान की स्मृति-पट्टी पर एक गहरा संकेत छोड़ती है। इसी दिन डॉ. पद्मनाभा कृष्णगोपाल अयंगर, वह वैज्ञानिक जिन्होंने भारत के वैज्ञानिक आत्म-सम्मान को परमाणु विस्फोट की ऊर्जा दी, इस संसार से विदा हो गए। इस दिन भारतीय परमाणु कार्यक्रम से केवल एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक वैचारिक नेतृत्व का युग समाप्त हो गया। यह किसी वैज्ञानिक के निधन का शोक नहीं था, बल्कि उस भारतीय आकांक्षा का मौन था जिसने पोखरण की रेत में स्माइलिंग बुद्धा बनाकर दुनिया को चुनौती दी।
प्रधानमंत्री बदलते रहे, कूटनीति के स्वर बदलते रहे, लेकिन एक चीज स्थिर रही और वह थी अयंगर का यह विश्वास कि विज्ञान केवल अनुसंधान नहीं है, बल्कि यह राष्ट्र की इच्छाशक्ति का प्रमाण है। वे ऐसे वैज्ञानिक थे जो परमाणु शक्ति को एक हथियार नहीं, बल्कि आत्मनिर्भरता का एक तर्क मानते थे। मुंबई के भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र की प्रयोगशालाओं से लेकर राजस्थान के पोखरण तक उनका सफर उत्साह, जोखिम, गोपनीयता और वैज्ञानिक दुस्साहस से भरा हुआ था, जो एक राष्ट्रीय निर्णय में परिणत हुआ।
उन्होंने 40 वर्ष तक भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग में कार्य किया। 1984 में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र के निदेशक और 1990 में परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष बने। उनकी उपलब्धियों को एसएस भटनागर पुरस्कार ने मान्यता दी और पद्म भूषण ने स्वीकार किया, लेकिन असली सम्मान तब मिला जब डॉ. होमी जे भाभा ने उन्हें चुना और कहा कि यही भविष्य में भारत की क्षमता को गढ़ेगा।
यह कहानी 1950 के दशक की है। युवा अयंगर कनाडा की चॉक रिवर लैबोरेटरी में काम कर रहे थे। प्रो. ब्रॉकहाउस के साथ मिलकर न्यूट्रॉन स्कैटरिंग पर महत्वपूर्ण शोधपत्र लिखे और फिर दुनिया को यह समझाने का साहस दिखाया कि भारतीय दिमाग नाभिकीय अनुसंधान में किसी पश्चिमी प्रयोगशाला से कम नहीं है। वर्षों बाद जब ब्रॉकहाउस को नोबेल मिला, तो उस उपलब्धि में अयंगर का भी योगदान था, भले ही नाम मंच पर एक ही रहा। भारत लौटने पर अयंगर ने प्रयोगशाला-सिद्धांत को एक आंदोलन में बदल दिया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित न्यूट्रॉन स्कैटरिंग समूह की नींव रखी।
हालांकि, उनके साहस की असली परीक्षा 18 मई 1974 को हुई, जब पोखरण में भारत ने दुनिया से छिपकर स्माइलिंग बुद्धा का परीक्षण किया। वैज्ञानिक उपकरण का मूल डिजाइन, गुप्त तैयारियां, विस्फोट की संभावना और असफलता का जोखिम, इन सबकी धुरी पर वह वैज्ञानिक खड़ा था। जब किसी ने उनसे पूछा कि यदि उपकरण फेल हुआ तो? अयंगर ने कहा कि अगर यह असफल होता है, तो असफलता मेरी नहीं, भौतिकी की होती। उस समय जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद वैज्ञानिक वर्चस्व को अपनी संपत्ति समझता था, भारत पहला देश बना जिसने उस सीमा को पार किया और इसके केंद्र में अयंगर का सटीक दिमाग था।
उनकी दृष्टि बम बनाने की नहीं थी; वे प्रयोगशाला से आगे जाकर समाज, तकनीक और राष्ट्र की आत्मा में विज्ञान भरना चाहते थे। वे कोल्ड फ्यूजन जैसे विवादास्पद विषयों पर भी अडिग रहे। उन्होंने प्रयोग किए, टीम बनाईं, आलोचनाएं झेली, पर विश्वास नहीं छोड़ा कि भौतिकी आज जितनी है, उससे आगे भी कुछ है। उनका मानना था कि तकनीक और बुनियादी विज्ञान अगर अलग हो जाएं, तो नवाचार समाप्त हो जाता है।
जीवन के अंतिम वर्षों में वे विदेशी रिएक्टरों के आयात के मुखर विरोधी रहे। उन्होंने कहा कि विज्ञान को सीखने की आजादी चाहिए, लेकिन तकनीकी आत्मनिर्भरता राष्ट्र की रीढ़ है। वे कहते थे कि अमेरिका का वैज्ञानिक नेतृत्व इसलिए फलता है क्योंकि प्रतिभाएं रोकी नहीं जातीं, वे घूमती हैं, बढ़ती हैं, और प्रवाह बनाती हैं। विज्ञान बंद दरवाजों के पीछे नहीं पैदा होता।
21 दिसंबर 2011 को उनका निधन हुआ। वे दुनिया को अलविदा कह गए। उनके निधन के एक साल बाद, अयंगर परिवार ने उनकी स्मृति में पुरस्कार की स्थापना की। यह पुरस्कार भारतीय नागरिकों के लिए है, जो भारत में कार्यरत हैं और किसी भारतीय संस्थान से जुड़े हैं। डॉ. पीके अयंगर पुरस्कार में एक प्रशस्ति पत्र और 1.50 लाख रुपए की नकद राशि शामिल है।