क्या गुलजारी लाल नंदा ने अपने जीवन में सचमुच सरकार की सुख-सुविधाओं को ठुकरा दिया?

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क्या गुलजारी लाल नंदा ने अपने जीवन में सचमुच सरकार की सुख-सुविधाओं को ठुकरा दिया?

सारांश

गुलजारी लाल नंदा, भारतीय राजनीति के एक अद्वितीय नेता, जिन्होंने दो बार प्रधानमंत्री के रूप में देश का नेतृत्व किया। उन्होंने सरकारी सुख-सुविधाओं को ठुकराते हुए सादगी से जीवन व्यतीत किया। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व केवल पद से नहीं, बल्कि चरित्र से पहचाना जाता है। जानें उनके अद्वितीय योगदान के बारे में।

Key Takeaways

  • गुलजारी लाल नंदा का जीवन सादगी और बलिदान का प्रतीक है।
  • उन्होंने संघर्ष के समय में देश की बागडोर संभाली।
  • उनका योगदान भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण रहा है।
  • सच्चा नेतृत्व चरित्र से पहचाना जाता है, न कि केवल पद से।
  • उन्होंने सरकारी सुविधाओं को ठुकराकर अपने सिद्धांतों के प्रति निष्ठा दिखाई।

नई दिल्ली, 3 जुलाई (राष्ट्र प्रेस)। कुछ लोग इतिहास को लिखते हैं और कुछ लोग उसे बनाते हैं। गुलजारी लाल नंदा उन चंद महान व्यक्तियों में से थे, जिन्होंने चुपचाप अपने कार्यों से इतिहासदो बार देश की बागडोर संभाली, लेकिन फिर भी सरकारी सुख-सुविधाओं की चाह नहीं की। देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में उन्होंने जेल की यातनाएं सही, मजदूरों की आवाज बने और सत्ता के शिखर पर पहुँचकर भी सादगी की चादर ओढ़े रहे। उनका जीवन कोई प्रचार नहीं, बल्कि एक मौन तपस्या था। वे सत्ता में रहकर भी सत्ता से दूर, राजनीति में रहकर भी मूल्य और मर्यादा के साथ खड़े रहे।

4 जुलाई 1898 को पंजाब के सियालकोट (अब पाकिस्तान में) जन्मे इस गांधीवादी नेता का योगदान भारतीय राजनीति में अत्यंत प्रेरणादायक है। वे प्रधानमंत्री रह चुके थे, और अपने जीवन के अंत में किराया न चुका पाने के कारण घर से निकाले गए, लेकिन उनका चेहरा न तो शिकन में था और न ही कोई शिकायत। गुलजारी लाल नंदा ने उस समय देश को नेतृत्व दिया जब पं. जवाहर लाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री अचानक अलविदा कह गए। उन्होंने हरियाणा की सांस्कृतिक आत्मा कुरुक्षेत्र को नई पहचान दी। उनका जीवन यह सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व पद से नहीं, बल्कि चरित्र से पहचाना जाता है।

लाहौर, आगरा, और इलाहाबाद में शिक्षा प्राप्त करने के बाद, गुलजारी लाल नंदा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में श्रम समस्याओं पर शोध किया। 1921 में वे नेशनल कॉलेज, मुंबई में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक बने, लेकिन उसी वर्ष असहयोग आंदोलन में कूदने का साहस दिखाया। 1922 से 1946 तक वे अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन के सचिव रहे, जहां उन्होंने मजदूरों के अधिकारों की आवाज उठाई। 1932 और 1942 के आंदोलनों में उन्हें जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उनके विचार अडिग रहे।

1937 में वे बंबई विधानसभा के सदस्य बने और 1946 में बंबई सरकार में श्रम मंत्री बने। उन्होंने श्रम विवाद विधेयक जैसे ऐतिहासिक विधेयकों को पारित कर श्रम नीतियों की दिशा तय की। वे राष्ट्रीय योजना समिति के सदस्य, हिंदुस्तान मजदूर सेवक संघ के सचिव, और कस्तूरबा मेमोरियल ट्रस्ट के न्यासी रहे। 1950 में वे योजना आयोग में उपाध्यक्ष बने, इसके बाद योजना, सिंचाई और बिजली मंत्री बने।

पंडित नेहरू के निधन के बाद 27 मई 1964 को उन्होंने पहली बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद 11 जनवरी 1966 को वे दोबारा कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने। हालांकि, उनका कार्यकाल अल्पकालिक था, लेकिन यह भारतीय लोकतंत्र की उस परंपरा को पुष्ट करता है जहां भरोसेमंद और सिद्धांतवादी व्यक्ति को संकट की घड़ी में राष्ट्र की बागडोर सौंपी जाती है।

1967 में उन्होंने गुजरात छोड़कर हरियाणा को अपनी नई कर्मभूमि बनाया। कैथल से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे और 1968 में कुरुक्षेत्र विकास बोर्ड की स्थापना की। अगले 22 वर्षों तक उन्होंने अध्यक्ष के रूप में कुरुक्षेत्र के धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्वरूप को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ज्योतिसर, सन्निहित सरोवर और श्रीकृष्ण आयुर्वेदिक महाविद्यालय से लेकर पिहोवा तक, हर तीर्थ स्थल उनके स्नेह और दूरदर्शिता का गवाह है। आज हरियाणा की सांस्कृतिक राजधानी कुरुक्षेत्र नंदा जी की इस अनथक सेवा का परिणाम है।

गुलजारी लाल नंदा का जीवन इस युग के नेताओं के लिए एक आईना है। बुढ़ापे में एक दिन उन्हें मकान मालिक ने किराया न देने पर घर से निकाल दिया। उनके पास केवल कुछ बर्तन, बिस्तर और बाल्टी थी। पड़ोसियों ने हस्तक्षेप किया और एक पत्रकार ने यह दृश्य देखा, जो अगले दिन के अखबार की हेडलाइन बन गया। इस खबर के सामने आने के बाद देश स्तब्ध रह गया। जब प्रधानमंत्री कार्यालय तक यह खबर पहुंची, तो कई सरकारी गाड़ियों का काफिला उनके दरवाजे पहुंचा और घर समेत कई अन्य सरकारी सुविधाएं लेने की अपील की। लेकिन, उन्होंने साफ इनकार करते हुए कहा, 'मैंने स्वतंत्रता सेनानी का भत्ता ठुकराया था क्योंकि मैंने देश के लिए लाभ नहीं, बलिदान किया था। इस उम्र में सरकारी सुविधाओं का क्या करूंगा?'

1997 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। अगले साल 15 जनवरी 1998 को उनका निधन हुआ। उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनकी अस्थियां कुरुक्षेत्र में रहें। उनकी इच्छानुसार उनकी मृत्यु के बाद उनकी अस्थियों को गुलजारी लाल नंदा स्मारक में दफना दिया गया। यह स्मारक केवल ईंट-पत्थर का ढांचा नहीं, बल्कि सादगी, सेवा और संस्कार का एक जीता-जागता प्रेरणास्रोत है।

Point of View

बल्कि चरित्र और मूल्यों से पहचाना जाता है। उनकी सादगी और बलिदान की भावना आज के समय में भी प्रासंगिक है। हमें उनके जैसे नेताओं से सीखना चाहिए और उन्हें याद रखना चाहिए।
NationPress
04/08/2025

Frequently Asked Questions

गुलजारी लाल नंदा का जन्म कब और कहाँ हुआ?
गुलजारी लाल नंदा का जन्म 4 जुलाई 1898 को पंजाब के सियालकोट में हुआ।
गुलजारी लाल नंदा ने कितनी बार प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया?
उन्होंने दो बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया।
उन्हें भारत रत्न कब मिला?
उन्हें 1997 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
गुलजारी लाल नंदा का योगदान क्या था?
उन्होंने मजदूरों के अधिकारों के लिए महत्वपूर्ण कार्य किए और श्रम नीतियों में सुधार लाए।
उनकी अंतिम इच्छा क्या थी?
उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनकी अस्थियां कुरुक्षेत्र में ही रहें।